प्रश्न: सांझ आप कहते हैं कि इंद्रियों की पकड़ में जो नहीं आता वही अविनाशी है। और सुबह कहते हैं कि चारों तरफ वही है; उसका स्पर्श करें, उसे सुनें। क्या इन दोनों बातों में विरोध, कंट्राडिक्शन नहीं है?
इंद्रियों की पकड़ में जो नहीं आता वही अविनाशी है। और जब मैं कहता हूं सुबह आपसे कि उसका स्पर्श करें, तो मेरा अर्थ यह नहीं है कि इंद्रियों से स्पर्श करें। इंद्रियों से तो जिसका स्पर्श होगा वह विनाशी ही होगा। लेकिन एक और भी गहरा स्पर्श है जो इंद्रियों से नहीं होता, अंतःकरण से होता है। और जब मैं कहता हूं, उसे सुनें, या मैं कहता हूं, उसे देखें, तो वह देखना और सुनना इंद्रियों की बात नहीं है। ऐसा भी सुनना है जो इंद्रियों के बिना भीतर ही होता है। और ऐसा भी देखना है जो आंखों के बिना भीतर ही होता है। उस भीतर सुनने-देखने और स्पर्श करने की ही बात है। और यदि उसका अनुभव शुरू हो जाए, तो फिर वह जो विनाशी दिखाई पड़ता है चारों ओर, उसके भीतर भी अविनाशी का सूत्र अनुभव में आने लगता है।
विरोध जरा भी नहीं है। दिखाई पड़ता है। और दिखाई पड़ेगा। धर्म की सारी भाषा ही कंट्राडिक्ट्री, विरोधों से भरी हुई है। उसका कारण है। क्योंकि हमें जिस भाषा का उपयोग करना पड़ता है, वह भाषा उसके लिए बनाई नहीं गई है जिसके लिए हमें उसका उपयोग करना पड़ता है।
'स्पर्श' तो बनाया गया है इंद्रिय के अनुभव के लिए; लेकिन इसका उपयोग करना पड़ता है अतींद्रिय अनुभव के लिए भी। 'दर्शन' तो बनाया गया है आंख के उपयोग के लिए; लेकिन जब हम कहते हैं 'प्रभु-दर्शन', तो आंख का कोई लेना-देना नहीं है। जो भी हमारे पास शब्द हैं, जो भी भाषा है, वह सब इंद्रिय के लिए है। और जिस समाधि की ओर हम कदम रखना चाहते हैं वह अतींद्रिय है। भाषा इंद्रियों की है, अनुभव अतींद्रिय का है। निश्चित ही विरोध मालूम पड़ेंगे। जिस भाषा में हम कह रहे हैं, वह भाषा ही उसके लिए नहीं है, जिसे कहना चाहते हैं।
लेकिन अगर इतना समझ में आ जाए, तो फिर खयाल रखें कि भाषा केवल इशारा है। इशारे को अगर बहुत जोर से पकड़ लेंगे, तो गड़बड़ हो जाएगी। इशारा छोड़ देने के लिए है। चांद की तरफ मैंने अंगुली उठाई और कहा कि यह चांद है। आप चाहें तो मेरी अंगुली पकड़ सकते हैं और कह सकते हैं कि चांद यहां कहां है? मेरी अंगुली में चांद नहीं है। अंगुली का चांद से कुछ लेना-देना भी नहीं है। अंगुली और चांद के बीच किसी तरह का कोई संबंध भी नहीं है। फिर भी अगर मेरी अंगुली को छोड़ कर आपकी आंखें चांद की तरफ उठ जाएं, तो अंगुली चांद को बता सकती है। लेकिन अगर आप अंगुली को ही जोर से पकड़ लें और कहने लगें कि इसी अंगुली को बता कर तो कहा था कि चांद है। कहां है चांद? तो अड़चन होगी, तो कठिनाई होगी।
शब्द निःशब्द की ओर इशारा बन सकते हैं। वाणी मौन की तरफ इशारा बन सकती है। लेकिन अगर वाणी को पकड़ा, तो मौन की कोई खबर न मिलेगी। और अगर शब्द को पकड़ा, तो निःशब्द की तरफ आंख न उठेगी।
कहता हूं: स्पर्श। और फिर भी प्रयोजन नहीं है स्पर्श से। कहता हूं: सुनें। फिर भी सुनने को वहां कोई शब्द नहीं है। कहता हूं: देखें। फिर भी आंखों का वहां कोई उपयोग नहीं है। इशारे को समझें और यात्रा पर निकल जाएं।
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