Monday, April 18, 2011

स्वयं से प्रेम करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि तुम कौन हो।


स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिन गलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है--आत्मार्थ। अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है।

और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे परार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससे परार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी और का कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा! इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूं, अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो। इसको स्वार्थ कहते हो! चलो स्वार्थ ही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है! लेकिन यह स्वार्थ बिलकुल जरूरी है। यह दुनिया ज्यादा सुखी हो जाए, अगर लोग ठीक अर्थों में स्वार्थी हो जाएं।

Tuesday, April 12, 2011

मैं आपसे वही कहूंगा जो मैं जानता हूं


मैं वही कहूंगा जो मैं जानता हूं; वही कहूंगा जो आप भी जान सकते हैं। लेकिन जानने से मेरा अर्थ है, जीना। जाना बिना जीए भी जा सकता है। तब ज्ञान होता है एक बोझ। उससे कोई डूब तो सकता है, उबरता नहीं। जानना जीवंत भी हो सकता है। तब जो हम जानते हैं, वह हमें करता है निर्भार, हलका, कि हम उड़ सकें आकाश में। जीवन ही जब जानना बन जाता है, तभी पंख लगते हैं, तभी जंजीरें टूटती हैं, और तभी द्वार खुलते हैं अनंत के।

Sunday, March 20, 2011

इंद्रियों की पकड़ में जो नहीं आता वही अविनाशी है


प्रश्न: सांझ आप कहते हैं कि इंद्रियों की पकड़ में जो नहीं आता वही अविनाशी है। और सुबह कहते हैं कि चारों तरफ वही है; उसका स्पर्श करें, उसे सुनें। क्या इन दोनों बातों में विरोध, कंट्राडिक्शन नहीं है?

इंद्रियों की पकड़ में जो नहीं आता वही अविनाशी है। और जब मैं कहता हूं सुबह आपसे कि उसका स्पर्श करें, तो मेरा अर्थ यह नहीं है कि इंद्रियों से स्पर्श करें। इंद्रियों से तो जिसका स्पर्श होगा वह विनाशी ही होगा। लेकिन एक और भी गहरा स्पर्श है जो इंद्रियों से नहीं होता, अंतःकरण से होता है। और जब मैं कहता हूं, उसे सुनें, या मैं कहता हूं, उसे देखें, तो वह देखना और सुनना इंद्रियों की बात नहीं है। ऐसा भी सुनना है जो इंद्रियों के बिना भीतर ही होता है। और ऐसा भी देखना है जो आंखों के बिना भीतर ही होता है। उस भीतर सुनने-देखने और स्पर्श करने की ही बात है। और यदि उसका अनुभव शुरू हो जाए, तो फिर वह जो विनाशी दिखाई पड़ता है चारों ओर, उसके भीतर भी अविनाशी का सूत्र अनुभव में आने लगता है।

Thursday, March 17, 2011

आपका संदेश घर-घर पहुंचाने का संकल्प अपने आप ही सघन होता जा रहा है

प्रश्न: भगवान, आपका संदेश घर-घर पहुंचाने का संकल्प अपने आप ही सघन होता जा रहा है। समाज हजार बाधाएं खड़ी करेगा, कर रहा है। जीवन भी संकट में पड़ सकता है। मैं क्या करूं?



नीरज, जीवन तो संकट में है ही; मौत तो आएगी ही। इसलिए अब और जीवन संकट में क्या पड़ सकता है? मौत से बड़ी और क्या दुर्घटना हो सकती है? लोग बिगाड़ क्या लेंगे? ऐसे ही सब छिन जाने वाला है। इसलिए घबड़ाहट क्या? चिंता क्या? जहां सब लुट ही जाने वाला है, वहां तो घोड़े बेच कर सोओ, फिकर छोड़ो! लोग क्या करेंगे? लोग क्या छीन लेंगे? और लोग जो अड़चनें पैदा करेंगे, अगर तुम में समझ हो तो हर अड़चन साधना बन जाएगी। लोग बाधाएं डालेंगे, अगर तुम में थोड़ी समझ हो तो हर बाधा सीढ़ी बन जाएगी। लोग अड़चन पैदा करें, बाधा पैदा करें, इससे तुम्हारे भीतर आत्मा सघन होगी, मजबूत होगी, एकाग्र होगी।

विपश्‍यना मनुष्‍य जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण ध्‍यान-प्रयोग है।


ईश्‍वर समर्पण, कहा तुमने;विपस्सना में इतनी उड़ान अनुभव हुई।
विपश्‍यना मनुष्‍य जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण ध्‍यान-प्रयोग है। जितने व्‍यक्‍ति विपश्यना से बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हुए उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपश्यना अपूर्व हे। विपश्यना शब्‍द का अर्थ होता है: देखना, लौटकर देखना।
बुद्ध कहते थे, इहि पस्‍सिको; आओ और देखो। बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्‍वर को मानना न मानना,आत्‍मा को मानना न मानना आवश्‍यक नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है दुनिया में जिसमें मान्‍यता,पूर्वाग्रह, विश्‍वास इत्‍यादि की कोई आवश्‍यकता नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है।
बुद्ध कहते: आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना। और जिसने देख लिया उसे मानना थोड़े ही पड़ता है;मान ही लेना पड़ता है। और बुद्ध के देखने की जो प्रकिया थी। दिखाने की जो प्रकिया थी उसका नाम था विपस्सना।

Wednesday, March 16, 2011

धर्म की यात्रा पर विश्वास से काम नहीं चलता। _ ओशो

प्रभु की खोज में किस नाम से यात्रा पर निकला कोईयह महत्वपूर्ण नहीं हैऔर किस मंदिर से प्रवेश किया उसनेयह भी महत्वपूर्ण नहीं है। किस शास्त्र को मानायह भी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण सिर्फ इतना है कि उसका भाव श्रद्धा का था। वह राम को भजता हैकि कृष्ण को भजता हैकि जीसस को भजता हैइससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। वह भजता हैइससे फर्क पड़ता है। किस बहाने से वह प्रभु और अपने बीच सेतु निर्मित करता हैवे बहाने बेकार हैं। असली बात यही है कि वह प्रभु-मिलन के लिए आतुर हैवह श्रद्धा ही सार्थक है।

इसे ऐसा समझें कि यदि परमात्मा का सवाल भी न होऔर कोई व्यक्ति परम श्रद्धा से आपूरित होकिसी के प्रति भी नहींसिर्फ श्रद्धा का उसके हृदय में आविर्भाव होता होश्रद्धा उसके हृदय से विकीर्णित होती होकिसी के चरणों में भी नहींलेकिन उसके भीतर से श्रद्धा का झरना बहता होतो भी वह परमात्मा को उपलब्ध हो जाएगा। नास्तिक भी पहुंच सकता है वहांअगर उसके हृदय से श्रद्धा के फूल झरते हैं। और आस्तिक भी वहां नहीं पहुंच पाएगाअगर उसके जीवन में श्रद्धा का झरना नहीं है। तो श्रद्धा को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। श्रद्धा से क्या अर्थ हैश्रद्धा से अर्थविश्वास नहीं हैबिलीफ नहीं है।

Wednesday, March 2, 2011

जीवन के द्वार की कुंजी - osho

मैं वही कहूंगा जो मैं जानता हूं; वही कहूंगा जो आप भी जान सकते हैं। लेकिन जानने से मेरा अर्थ है, जीना। जाना बिना जीए भी जा सकता है। तब ज्ञान होता है एक बोझ। उससे कोई डूब तो सकता है, उबरता नहीं। जानना जीवंत भी हो सकता है। तब जो हम जानते हैं, वह हमें करता है निर्भार, हलका, कि हम उड़ सकें आकाश में। जीवन ही जब जानना बन जाता है, तभी पंख लगते हैं, तभी जंजीरें टूटती हैं, और तभी द्वार खुलते हैं अनंत के।

लेकिन जानना कठिन है, ज्ञान इकट्ठा कर लेना बहुत आसान। और इसलिए मन आसान को चुन लेता है और कठिन से बचता है। लेकिन जो कठिन से बचता है वह धर्म से भी वंचित रह जाएगा। कठिन ही नहीं, जो असंभव से भी बचना चाहता है, वह कभी भी धर्म के पास नहीं पहुंच पाएगा। धर्म तो है ही उनके लिए, जो असंभव में उतरने की तैयारी रखते हैं। धर्म है जुआरियों के लिए, दुकानदारों के लिए नहीं। धर्म कोई सौदा नहीं है। धर्म कोई समझौता भी नहीं है। धर्म तो है दांव। जुआरी लगाता है धन को दांव पर, धार्मिक लगा देता है स्वयं को। वही परम धन है। और जो अपने को ही दांव पर लगाने को तैयार नहीं, वह जीवन के गुह्य रहस्यों को कभी भी जान नहीं पाएगा।

सस्ते नहीं मिलते हैं वे रहस्य, ज्ञान तो बहुत सस्ता मिल जाता है। ज्ञान तो मिल जाता है किताब में, शास्त्र में, शिक्षा में, शिक्षक के पास। ज्ञान तो मिल जाता है करीब-करीब मुफ्त, कुछ चुकाना नहीं पड़ता। धर्म में तो बहुत कुछ चुकाना पड़ता है। बहुत कुछ कहना ठीक नहीं, सभी कुछ दांव पर लगा दे कोई, तो ही उस जीवन के द्वार खुलते हैं। इस जीवन को जो दांव पर लगा दे उसके लिए ही उस जीवन के द्वार खुलते हैं। इस जीवन को दांव पर लगा देना ही उस जीवन के द्वार की कुंजी है।


लेकिन ज्ञान बहुत सस्ता है। इसलिए मन सस्ते रास्ते को चुन लेता है; सुगम को। सीख लेते हैं हम बातें, शब्द, सिद्धांत, और सोचते हैं जान लिया। अज्ञान बेहतर है ऐसे ज्ञान से। अज्ञानी को कम से कम इतना तो पता है कि मुझे पता नहीं है। इतना सत्य तो कम से कम उसके पास है।


जिन्हें हम ज्ञानी कहते हैं, उनसे ज्यादा असत्य आदमी खोजने मुश्किल हैं। उन्हें यह भी पता नहीं है कि उन्हें पता नहीं है। सुना हुआ, याद किया हुआ, कंठस्थ हो गया धोखा देता है। ऐसा लगता है, मैंने भी जान लिया। मैं आपसे वही कहूंगा जो मैं जानता हूं। क्योंकि उसके कहने का ही कुछ मूल्य है। क्योंकि जिसे मैं जानता हूं, अगर आप तैयार हों, तो उसकी जीवंत चोट आपके हृदय के तारों को भी हिला सकती है। जिसे मैं ही नहीं जानता हूं, जो मेरे कंठ तक ही हो, वह आपके कानों से ज्यादा गहरा नहीं जा सकता। जो मेरे हृदय तक हो, उसकी ही संभावना बनती है, अगर आप साथ दें तो वह आपके हृदय तक जा सकता है।


आपके साथ की तो फिर भी जरूरत होगी; क्योंकि आपका हृदय अगर बंद ही हो, तो जबरदस्ती उसमें सत्य डाल देने का कोई उपाय नहीं है। और अच्छा ही है कि उपाय नहीं है। क्योंकि सत्य भी अगर जबरदस्ती डाला जाए तो स्वतंत्रता नहीं बनेगा, परतंत्रता बन जाएगा।


सभी जबरदस्तियां परतंत्रताएं बन जाती हैं। इसलिए इस जगत में सभी चीजें जबरदस्ती आपको दी जा सकती हैं, सिर्फ सत्य नहीं दिया जा सकता; क्योंकि सत्य कभी भी परतंत्रता नहीं हो सकता; सत्य का स्वभाव स्वतंत्रता है। इसलिए एक चीज भर है इस जगत में जो आपको कोई जबरदस्ती नहीं दे सकता; जो आपके ऊपर थोपी नहीं जा सकती; जो आपको पहनाई नहीं जा सकती, ओढ़ाई नहीं जा सकती। आपका राजी होना अनिवार्य शर्त है; आपका खुला होना, आपका ग्राहक होना, आपका आमंत्रण, आपका अहोभाव से भरा हुआ हृदय। जैसे पृथ्वी वर्षा के पहले पानी के लिए प्यासी होती है और दरारें पड़ जाती हैं--इस आशा में पृथ्वी जगह-जगह अपने ओंठ खोल देती है कि वर्षा हो--ऐसा जब आपका हृदय होता है, तो सत्य प्रवेश करता है। अन्यथा...अन्यथा सत्य आपके द्वार से भी आकर लौट जाता है। बहुत बार लौटा है, बहुत जन्मों-जन्मों में।


OSHO